Tuesday, July 6, 2010

तसला भर आदमी

हिंडन के पानी में परछाईं धूम की
जलती हैं लकड़ियाँ चिटखकर श्मशान में
चिटखता है सब कुछ  बिखरता है शीशे-सा
किरचें चुभती हैं नश्तर-सी यादों की 
ऊदी लकड़ी-सा धुन्धुआता  है मन
आँखों में उठती हैं लपटें दिक्दाह की
बुद्धि में उभरता है एक विकराल शून्य.

लकड़ियों पर लकड़ियाँ आड़ी-टेढ़ी-तिरछी
एक-पर-एक एक निश्चित पैटर्न में
ऐसे ही जैसे कोई जोड़ता है जीवन भर
सुख-दुःख के साधन एहतियात से
स्तूप खड़ा करता है सच के , कुछ झूठ के
रचता है अपना सुगढ़ सुंदर व्यक्तित्व .

लकड़ियों के मध्य एक काया सुकुमार-सी
विस्तार सपनों  का पसरा था कल तक जो
अनंत की सीमाओं तक आज एक शून्य मात्र 
घरोंदे का सुख और कामिनी की कामना
ऋतुओं से जुडी-बंधी देह की छुवन-तपन
शेष नहीं कुछ भी अब वासना-पवित्रता .

बाजू जो कसकर  निचोड़ते थे सुख-दुःख
भरोसा थे संकट के पार ले जाने का
अन्याय के प्रतिकार हेतु उठते उत्साह भर
लोरी के ताल पर झूले-से झूलते
संबल बन ले चलते गुरुजन का वार्धक्य
दुःख जिसपर टिककर पा लेता धीरज
करते थे रचनाएँ कला और संस्कृति की
सभ्यता को देते थे वैशिष्ट्य इतिहास का
क्षमता थी थामने की कलम और तलवार संग
धरती की छाती से जीवन उपजाने की
रेखाओं में आता था भर देना जीवन
स्पंदित कर देना पत्थर की जड़ता को
आज वही निष्पंद बर्फ की शिलाओं-से.

चेहरा जो यूसुफ-नार्सिसस-कंदर्प था
प्रकृति का समेटे था सारा सौंदर्य
भौंहों का तनना मुस्का भर जाना होंठों का
सन्चरित करता जो भावों-विभावों की श्रृंखला
करता रहा जिसकी रखवाली दिठोना 
माँ ने निहारा था रातों को जाग-जाग ,
ऑंखें जो साक्षात् जीवन का चिह्न थीं
खंजन-कमल-मीन रचती थीं उपमान
जीवन छलकता था स्वच्छ नील दर्पण से
बोल-बोल पड़ता था ह्रदय भाव-विह्वल हो
प्रेम की मनुहार भरी बातें प्रतिबिंबित हो
रचती थीं लोक  एक अलोकिक सौंदर्य का,
अनदेखी राहों को मापने का हौसला
दम ढूंढ लेने का नए-नए विश्व कई
ललक लाँघ लेने की पर्वतों की चोटियाँ
ज्ञान का आलोक  भर लेने को मुट्ठी में
पाने को रहस्य सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का
मौन पड़ी मिटटी-सी जिज्ञासा दुर्दमनीय .

ज्वाला सब लील लेती छोडती नहीं है कुछ
प्रज्ञा , स्मृति , बुद्धि , साहस , परिकल्पना
नहीं शेष रहता है कोई अभिज्ञान- चिह्न
  प्यार-सुख-वैभव या उनकी सम्भावना .

युद्धवीर , धर्मवीर , दानवीर श्रेष्ठ सभी
अंतिम गति एक सी, एक सी असमर्थता
लील गयी अग्नि-ज्वाल सुन्दर सुकुमार देह
दूध धुले फूल बचे, और बचा---- तसला भर आदमी!!!  
      

7 comments:

  1. "ओह!!!! क्या गजब लिखा है..

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  2. geeta kaa gyaan yaad dilaa gai ye rachnaa

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  3. saadhu, saadhu...aur kuchh kahna vash me hai bhi nahi.
    Prachan shabd han aapke even prakhar bhav.

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  4. रजनी कांत जी! जीवन का सत्य अईसा सब्द में वर्नन किए हैं कि जिसका कोनो सानी नहीं... एक एक सब्द अईसा कि जिसको बदला नहीं जा सकता है... डूबकर लिखा हुआ कबित्त अऊर आखिरी पंक्ति में तो मानव जीवन का सच बंद कर दिए हैं आप एगो तसला में... हमरा नमन सुईकार कीजिए!!

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  5. किसी टिप्पणी की गुंजायश नहीं है इस पोस्ट पर!! यह आपको कतई लाजवाब कर देती है।

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  6. Pataa nahi kyon aaj ki subhah kuchh aise hi bhavon ko mahsoos kar rahi thi....kavi abhi bhi hain..is liye kavitaon mein bhavon ko pratibimbit dekhti hoon! Dhanya hon kavi aur unki kavitayen!

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